Abstract
वर्तमान समय में विज्ञान ने अपने वैभवकारी स्वरूप एवं चमत्कृत कर देने वाली उपलब्धियों के बलबूते समूची मानव सभ्यता को अपने आकर्शण कि पाॅष में बाँध लिया है। परन्तु फिर भी यह एक कठिन सच है कि विज्ञान की सीढ़ियों से मनुश्य जीवन को पूर्णता एवं समग्रता तक नहीं ले जाया जा सकता। चूंकि मनुश्य एक जैविक प्राणी होने के साथ-साथ एक आत्मिक और आध्यात्मिक सŸाा भी है। उसके जीवन की गहन सूक्ष्मता में आत्मतŸव की प्रगाढ़ अनुभूति का निवास है जहाँ तक पहुँचना केवल आध्यात्म द्वारा ही सम्भव है। मनुश्य जीवन की वास्तविक मांग आत्मिक संतुश्टि है जिसे उसे स्वयं ही खोजना पड़ता हैै। आज का आधुनिक विज्ञान उसकी इस दिषा में अथवा अन्तयात्रा में कुछ ज्यादा मदद नहीं कर सकता है उसे सार्थक सहयोग यदि प्राप्त हो सकता है तो वह- आत्म विद्या से जिसे ऋशियों ने अध्यात्म विज्ञान के रूप में विकसित बनाया है। व्यावहारिक दृश्टि से भी हमारे जीवन में उपयोगिता एवं विकास की दृश्टि से विज्ञान और अध्यात्म दोनों आवष्यक और अनिवार्य है। यह वर्तमान समय की मांग है कि विज्ञान और आध्यात्म विद्या को सर्वथा एक दूसरे से भिन्न और अलग समझना छोड़कर दोनों की पूरकता और समन्वय में जीवन की सम्पूर्णता को परखा जाये। ऐसे में आवष्यकता है विज्ञान के महŸव को भी समझा जाये तथा अध्यात्म की गुढ़ अनुभूति जन्य ज्ञान को भी स्वीकारा और अपनाया जाये। मनुश्य का अस्तित्व षरीर, मन और आत्मा की संयुक्त संरचना है। ज्ञान-विज्ञान की अलग-अलग विधायें, षास्त्र इसी संरचना को अपनी दृश्टि विषेश से देखते और समझते आये हैं, और आंषिक रूप से ही सभी, परन्तु सभी का अपना महत्व और वैषिश्ट्य भी है। अतः जीवन विकास में योगदान की दृश्टि से किसी को बड़ा या छोटा न मानकर सभी का महŸव समान रूप से स्वीकारा जाना चाहिए। विज्ञान जड़ प्रकृति के नियमों पर कार्य करता है तो अध्यात्म चेतन प्रकृति के सिद्वान्तों की व्याख्या करता है। हमारा जीवन और ये सारी सृश्टि का संचालन जड़ और चेतन दोनों तŸवों के संयोग और पूरकता में ही सम्भव होता है। इनमें से किसी एक को महत्व देने से जीवन में एकांगीकता पनपती है। जिसका असर व्यक्तिगत जीवन से लेकर समूची समाज, संस्कृति और सभ्यता पर दिखाई देता है। विष्व सभ्यताओं के इतिहास में इस एकांगीपन के उदाहरण भरे पड़े हैं। बुद्धिवाद, विज्ञानवाद का ताण्डव और धर्मवाद एवं अध्यात्मवाद की एकांगी अन्धेरी गुफाँओं में अनेक पीढ़ियों का उत्सर्ग करने के उपरान्त भी मनुश्य जीवन को पूर्ण रूपेन षांति, सफलता और सन्तुश्टि नहीं मिल पायी है। अतः दोनों के एकांगीपन को दूर कर समन्वय एवं पूरकता की दृश्टि देखा जाना विष्व सभ्यता के लिए एक नया समग्र जीवन दर्षन का मार्ग प्रषस्त करता है।
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